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________________ षष्ठ परिच्छेद आलंबन से अर्थात् अन्तःकरण में सूक्ष्म जल्परूप भावगत आगम श्रुत के अवलंबन मात्र से, निज विशुद्ध आत्मा में विलीन हो कर सूक्ष्म विचारणात्मक जो आत्मचिन्तन करना, उसे सवितर्क कहते हैं। अथ शुक्लध्यानजनित समरस भाव को कहते हैं। इस प्रकार से एकत्व अविचार और सवितर्क रूप तीन विशेषण संयुक्त दूसरा शुक्लध्यान कहा। इस दूसरे शुक्लध्यान में वर्त्तता हुआ ध्यानी निरन्तर आत्मस्वरूप का चिन्तन करने के कारण समरस भाव को धारण करता है / सो यह समरस भाव जो है, सो तदेकशरण माना है / कारण कि आत्मा को अपृथक्त्व रूप से जो परमात्मा में लीन करना है, सोई समरस भाव का धारण करना है। ___ अथ क्षीणमोह गुणस्थान के अन्त में योगी जो करता है, सो कहते हैं / इस पूर्वोक्त ध्यान के योग से और दूसरे शुक्लध्यान के योग से कर्मरूप इन्धन के समूह को भस्म करता हुआ क्षपक-योगीन्द्र अन्त के प्रथम समय अर्थात् बारहवें गुणस्थान के दूसरे चरम समय में निद्रा अरु प्रचला, इन दो प्रकृति का क्षय करता है। . अथ अंत समय में जो करता है, सो कहते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान के अन्त समय में, चक्षुर्दर्शन, अचतुर्दर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन, यह चार दर्शनावरणीय तथा पंचविध ज्ञानावरण, तथा पंचविध अन्तराय, इन चौदह
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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