________________ षष्ठ परिच्छेद 5.3 . सो क्षपक-क्षीणमोहगुणस्थानवी दूसरे- शुक्लध्यान को एक योग करके ध्याता है / यदाहः* एक त्रियोगभाजामाय स्यादपरमेकयोगवताम् | तनुयोगिनां तृतीयं, निर्योगानां चतुर्थ तु // . [गुण क्रमा०, श्लो० 75 की वृत्ति], कैसा ध्यान है ? कि "अपृथक्त्व"--पृथक्त्व वर्जित, "अविचारं"-विचार रहित, “सवितर्कगुणान्वित”-वितर्क मात्र गुण से युक्त / इस प्रकार के दूसरे शुक्लध्यान को एक योग से ध्याता है। अथ अपृथक्त्व का स्वरूप कहते हैं:निजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम् / निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः॥ [गुण० क्रमा०, श्लो० 76 ] अर्थः तत्त्वज्ञाता एकत्व-अपृथक्त्व ध्यान उस को कहते हैं, कि जिस में निजात्मद्रव्य-विशुद्ध परमात्म द्रव्य अथवा - *भावार्थ --मन वचन और काया, इन तीनों के योग वाले योगी . को शुक्लध्यान का प्रथम पाद होता है, इन तीन में से किसी एक के योग वाले योगी को उक्त ध्यान का दूसरा पाद होता है, केवल सूक्ष्म काययोग वाले योगी को तीसरा पाद और इन तीनों योगो से रहित हुए अर्थात् अयोगी मुनि को शुक्लध्यान का चौथा पाद होता है। .