________________ * 542 जैनतत्त्वादर्श फिर संज्वलन मान,. फिर संज्वलन माया, फिर संज्वलन 'लोभ का क्षय करता है। अथ तहां बारहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के दूसरे अंश को जिस प्रकार से योगी आश्रित करता है, सो बात कहते हैं। भूत्वाथ क्षीणमोहात्मा, वीतरागो महायतिः। पूर्ववभावसंयुक्तो द्वितीयं शुक्लमाश्रयेत् // . [गुण क्रमा० श्लो०७४] तदनन्तर सो क्षपक-क्षीणमोह हो कर-क्षीणमोह गुणस्थान के मार्ग में परिणतिमान् हो कर, प्रथम शुक्लध्यान की रीति के अनुसार दूसरे शुक्लध्यान को आश्रित होता है। * "कथंभूतः क्षपकः ? वीतरागः विशेषेण इतो गतो रागो यस्मातु स वीतरागः" | फिर कैसा है क्षपक मुनि ? महायति, यथाख्यात चारित्री। फिर कैसा है मुनि ? शुद्धतर भाव करके संयुक्त, ऐसा क्षपक दूसरे शुक्ल ध्यान को आश्रित होता है। - अब इसी शुक्लध्यान को नाम और विशेषण से कहते हैं: अपृथक्त्वमविचारं, सवितर्कगुणान्वितम् / सध्यायत्येकयोगेन, शुक्लध्यानं द्वितीयकम् // [गुण क्रमा० श्लो० 75] _ ' * जिस के राग द्वेप नष्ट हो चुके हैं, वह वीतराग है।