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________________ 541 षष्ठ परिच्छेद से वावीस प्रकृति का बंध करता है और हास्य पदक के उदय का व्यवच्छेद होने से छयासठ प्रकृति को वेदता है / तथा नवमे अंश में माया पर्यंत प्रकृतियों के क्षय करने से पैंतील प्रकृति के व्यवच्छेद होने से एक सौ तीन प्रकृति की सत्ता है। __ अथ क्षपक के दशमे गुणस्थान का स्वरूप लिखते हैं / पूर्वोक्त नवमे गुणस्थान के अनंतर क्षपक मुनि क्षणमात्र से संज्वलन के स्थूल लोभ को सूक्ष्म करता हुआ सूक्ष्मसंपराय नामक दशमे गुणस्थान में चढ़ता है। तथा सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानस्थ जीव पुरुषवेद तथा संज्वलन चतुष्क के बंध का व्यवछेद होने से सतरां प्रकृति का बंध करता है / अरु तीन वेद तथा तीन संज्वलन कषाय के उदय का व्यवच्छेद होने से साठ प्रकृति को वेदता है, माया की सत्ता का व्यवच्छेद होने से एक सौ दो प्रकृति की सत्ता है। ____ अथ क्षपक को ग्यारहवां गुणस्थान नहीं होता है, किन्तु दशमे गुणस्थान से क्षपक सूक्ष्मलोभांशों-सूक्ष्मीकृत लोभखंडों को क्षय करता हुआ बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में जाता है। यहां क्षपकश्रेणी को समाप्त करता है / उस का क्रम यह है, कि प्रथम अनंतानुवंधी चार का क्षय करता है, फिर मिथ्यात्व मोहनीय, फिर मिश्रमोहनीय, फिर सम्यक्त्व मोहनीय, फिर अप्रत्याख्यानी चार कषाय, तथा प्रत्याख्यानी चार कपाय, एवं आठ कषाय का क्षय करता है, फिर नपुंसक वेद, फिर हास्यषट्क, फिर पुरुष वेद, फिर संज्वलन क्रोध,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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