________________ 540 जैनतत्त्वादर्श हण करता हुआ जौनसी कर्म प्रकृति को जहां पर जैसे क्षय करता है, सो कहते हैं। पूर्वोक्त आठमे गुणस्थान के अनन्तर क्षपक मुनि अनिवृत्ति नामक नवमे गुणस्थान में चढ़ता है। तब तिस नवमे गुणस्थान के नव भाग करता है / तहां प्रथम भाग में सोलां कर्म प्रकृति का क्षय करता है, सो यह हैं१. नरक गति, 2. नरकानुपूर्वी, 3. तिर्यग्गति, 4. तिर्यंचानुपूर्वी, 5. साधारणनाम, 6. उद्योतनाम, 7. सूक्ष्म, 8. द्वीन्द्रिय जाति, 9, त्रीन्द्रियजाति, 10. चतुरिन्द्रियजाति, 11. एकेन्द्रिय जाति, 12. आतपनाम, 15. स्त्याना त्रिक अर्थात् निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानार्द, 16. स्थावर नाम / इन सोलां कर्म प्रकृतियों को नवमे गुणस्थान के प्रथम भाग में क्षय करता है तथा अप्रत्याख्यान की चौकड़ी, अरु प्रत्याख्यान की चाकड़ी यह आठ मध्य के कपायों को दूसरे भाग में क्षय करता है / तीसरे भाग में नपुंसक वेद अरु चौथे भाग में स्त्री वेद का क्षय करता है / तथा पांचमे भाग में हास्य, रति, अरति, भय, शोक अरु जुगुप्सा, इन छ: प्रकृति का क्षय करता है / और छठे भाग से लेकर नवमे भाग तक के चारों भाग में क्रम से शुद्ध शुद्धतर होता हुआ ध्यान की अति निर्मलता से छठे भाग में पुरुष वेद, सातमे भाग में संज्वलन क्रोध, आठमे भाग में संज्वलन मान, नवमे भाग में संज्वलन माया को क्षय करता है / तथा इस गुणस्थान में वर्त्तता हुआ मुनि हास्य, अरति, भय,जुगुप्सा, इन चारों के व्यवच्छेदहोने