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________________ षष्ठ परिच्छेद पीतता है, अरु जो क्रमभूत है, सो पर्याय है, जैसे सुवर्ण में मुद्रा कुंडलादिक हैं / तिन द्रव्य गुण पर्यायांतरों में जिस , ध्यान में अन्यत्व-पृथक्त्व है, सो सपृथक्त्व है / ' . . ____ अथ आद्य शुक्लध्यान करके जो शुद्धि होती है, सो कहते हैं। ऊपर तीन भेद जिसके बतलाये हैं, ऐसा जो पृथक्त्व वितर्क विचाररूप प्रथम शुक्लध्यान है, उसको ध्याता हुआ समाधि वाला योगी परम-प्रकृष्ट शुद्धि को प्राप्त होता है, जो शुद्धि मुक्तिरूप लक्ष्मी के मुख के दिखलाने वाली है। * अथ इस ही का विशेष स्वरूप कहते हैं / यद्यपि यह शुक्लध्यान प्रतिपाती-पतनशील उत्पन्न होता है, तो भी अति विशुद्ध-अति निर्मल होने से अगले गुणस्थान में चढ़ना चाहता है, एतावता अगले गुणस्थान को दौड़ता है, तथा अपूर्वकरण गुणस्थानस्थ जीव निद्राद्विक, देवद्विक, पचेंद्रिय जाति, प्रशस्त विहायोगति, सनवक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, वैक्रियोपांग, आहारकोपांग, आद्य संस्थान, निर्माण, तीर्थकरनाम, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्रास, यह बत्तीस कर्म प्रकृति का व्यवच्छेद होने से छब्बीस कर्म प्रकृति का बन्ध करता है / तथा अन्तिम तीन संहनन अरु सम्यक्त्वमोह, इन चार के उदय का व्यवच्छेद होने से बहत्तर कर्म प्रकृति को वेदता है, अरु 138 कर्म प्रकृति की सत्ता है।. . . .. अथ क्षपक अनिवृत्ति नामक नवमे गुणस्थान में आरो
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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