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________________ 538 जैनतत्त्वादर्श करके गृहीत तीन विशेषण रूप है / तहां श्रुतचिता रूप वितर्क है, अर्थशब्दयोगांतर में जो संक्रमण करना, सो विचार है / द्रव्य, गुण, पर्यायादि करके जो अन्यपना है, सो पृथक्त्व है। .. अब इन तीनों का प्रगट अर्थ कहते हैं / उस में प्रथम वितर्क को स्वरूप कहते हैं / जिस ध्यान में अंतरंग ध्वनि रूप वितर्क-विचारणा रूप होवे, सो सवितर्क ध्यान है / स्वकीय निर्मल परमात्मतत्त्व अनुभवमय अंतरंग भावगत आगम के अवलंबन से सवितर्क ध्यान है। अव सविचार कहते हैं / जिस ध्यान में पूर्वोक्त वितर्कविचारणरूप, अर्थ से अर्थातर में संक्रम होवे, शब्द से शब्दांतर में संक्रम होवे,- योग से- योगांतर में संक्रम होवे, सो ध्यान, सविचार संक्रमण है। अब पृथक्त्व का स्वरूप कहते हैं / जिस ध्यान में वो पूर्वोक्त वितर्क सविचार अर्थ व्यंजन योगांतरों में संक्रमण रूप भी स्वकीय शुद्ध आत्म द्रव्यांतर में जाता है, अथवा गुणों से गुणांतर में जाता है, अथवा पर्यायों से पर्यायतिर में जोता है / जो सहजात है, सो गुण है, जैसे सुवर्ण में minimum.wmmmmmmmmmmmmaa *सहजाता गुणा द्रव्ये सुवर्णे पीतता यथा / क्रमभूतास्तु पर्याया मुद्राकुण्डलतादयः // :[ गुण क्रमा०. श्लो०६४' की वृत्ति [
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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