________________ षष्ठ परिच्छेद ओंकाराऽभ्यसनं विचित्रकरणैः प्राणस्य वायोर्जयात, तेजचिंतनमात्मकायकमले शून्यांतरालंबनम् / त्यक्त्वा सर्वमिदं कलेवरगतं चिंतामनोविभ्रम, तत्वं पश्यत जल्पकल्पनकलातीतं स्वभावस्थितम् / / [गुण० क्रमा०, श्लो० 56 की वृत्ति ] यह सर्व रूढि करके आपकश्रेणि के आडंबर हैं, परन्तु तत्त्व में मरुदेवादिवत् भाव ही प्रधान है। अथ आद्य शुक्लध्यान का नाम कहते हैं:सवितकं सविचारं सपृथक्त्वमुदाहृतम् / त्रियोगयोगिनः साधोराय शुक्लं सुनिर्मलम् / / [गुण क्रमा०, श्लो० 10] अर्थः-मन, वचन अरु काया के योग वाले मुनि को प्रथम शुक्लध्यान कहा है / सो कैसा है ? वितर्क के शुक्लध्यान और सहित जो वर्ते सो सवितर्क, विचार के सहित उसके भेद जो वर्ते सो सविचार, तथा पृथक्त्व के सहित जो चर्ते सो सपृथक्त्व है / इन तीनों विशेषणों करके संयुक्त होने से सपृथक्त्व-सवितर्क-सविचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है / इन तीनों विशेषणों का स्वरूप कहते हैं / यह पूर्वोक्त प्रथम शुक्लध्यान, त्रयात्मक-क्रमोत्क्रम