________________ 536 जैनतत्त्वाच अब भाव की ही प्रधानता कहते हैं:प्राणायामक्रमप्रौढिरत्र रूढ्यैव दर्शिता। . क्षपकस्य यतः श्रेण्यारोहे भावो हि कारणम् / / [गुण क्रमा० श्लो० 56 ] अर्थ-इहां नपक श्रेणि के आरोह विपे में जो प्राणायाम क्रमौढि अर्थात् पवन के अभ्यासक्रम की प्रगल्भता, सो रूढि से-पपिद्धि से यहां दिख गयी है / परन्तु प्राणायाम करे, तो ती नरकणि चहें, ऐसा कुछ नियम नहीं / क्योंकि क्षपक का केवल भाव ही क्षपक श्रेणि का कारण है, प्राणायामादि का आडम्बर नहीं / चर्पटी ने भी कहा है- . 'नासाकंद नाडीवृंद, वायोश्चारः प्रत्याहारः / प्राणायामो वीजग्रामो, ध्यानाभ्यासो मन्त्रन्यासः॥१॥ हृत्पद्मस्थं भ्रमध्यस्थं, नासाग्रस्थं श्वासांतःस्थम् / तेजः शुद्धं ध्यानं बुद्धं ओंकाराख्यं सूर्यप्रख्यम् // 2 // ब्रह्माकाशं शून्याभासं, मिथ्याजल्पं चिंताकल्पम् / कायाक्रांतं चित्तभ्रांतं, त्यक्त्वा सर्व मिथ्यागर्वम् // 3 // गुर्वादिष्टं चिंतोत्सृष्टं, देहातीतं भावोपेतम् / / . त्यक्तद्वंद्व नित्यानंद, शुद्धं तत्वं जानीहि त्वम् // 4 // अन्यच्च: