________________ षष्ठ परिच्छेद चेतसि श्रयति कुंभकचक्रं, नाडिकासु निविडीकृतवातः / कुंभवत्तरति यज्जलमध्ये, तद्वदन्ति किल कुंभककम। [गुण क्रमा० श्लो० 57 की वृत्ति ] अव पवन के जीतने से मन जीता जाता है, यह बात कहते हैं। क्योंकि जहां मन है, तहां पवन है, अरु जहां पवन है, तहां मन वर्तता है / यदाहःदुग्धांबुवत्संमिलितौ सदैव, तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि, यावन्मनस्तत्र मरुत्पत्तिर्यावन्मरुत्तत्र मनः प्रवृत्तिः / तत्रैकनाशादपरस्य नाश एकमवृत्तरपरप्रवृत्तिः, विश्वस्तयोरिंद्रियवर्गशुद्धिस्तद्धंसनान्मोक्षपदस्य सिद्धिः // * [गुण क्रमा० श्लो० 58 की वृत्ति ] इस प्रकार पूरक, रेचक और कुंभक के क्रम से पवनों के आकुंचन, निर्गमन को सिद्ध करके चित्त की एकाग्रता से समाधि विषे निश्चलपने को धारण करता है / क्योंकि पवन के जीतने से ही मन निश्चल होता है / यदाहःप्रचलति यदि क्षोणीचक्र चलंत्यचला अपि, - प्रलयपवनखालोलाश्चलंति पयोधयः / पवनजयिनः सावष्टंभप्रकाशितशक्तयः, स्थिरपरिणतेरात्मध्यानाचलंति न योगिनः॥ [गुण क्रमा० श्लो० 58 की वृत्ति]