________________ जैनतत्त्वादर्श हुए वारह अंगुल प्रमाण नीवे को वहता है / तव द्वादश अंगुल पर्यंत वारुण मंडल में प्रचार करने वाले अमृतमय पवन को आकर्षण करके जो अपने शरीर के कोष्ठ को योगी पूर्ण करता है, उस का नाम पूरक ध्यानकर्म कहते हैं। अथ रेचक प्राणायाम कहते हैं / पूरक ध्यान के अनंतर साधक-योगी योगसामर्थ्य से अरु प्राणायाम के अभ्यास के बल से रेचक नामा पवन को नाभिकमलोदर से हलुवे हलुवे ( धीरे २)जो बाहिर काढ़ता है, तिस को रेचक ध्यान कहते हैं / यदाहःवज्रासनस्थिरवपुः स्थिरधीः स्वचित्त मारोप्य रेचकसमीरणजन्मचक्रे / स्वांतेन रेचयति नाडिगतं समीरं, तत्कर्म रेचकमिति प्रतिपत्तिमेति // [गुण क्रम० श्लो० 56 की वृत्ति ] अथ कुंभक ध्यान कहते हैं / योगी कुंभकनामा पवन को नाभिपंकज में कुंभक ध्यान-अर्थात् कुम्भक कर्म के प्रयोग से कुंभवत्-घटाकार करके अत्यन्त स्थिर करता है, सो कुंभक ध्यान है / यदाहः