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________________ षष्ठ, परिच्छेद 533 संकोच्यापानरंध्रे हुतवहसदृशं तंतुवसूक्ष्मरूपं, . धृत्वा हृत्पद्मकोशे तदनु च गलके तालुनि प्राणशक्तिम् / नीत्वा शून्यातिशून्यां पुनरपि खर्गति दोप्यमानां समन्ताल्लोकालोकावलोकां कलयति सकलां यस्य तुष्टो 'जिनराः। (गुण क्रमा. श्लो. 54 की वृत्ति) अथ पूरक प्राणायाम कहते हैं। . द्वादशांगुलपर्यन समाकृष्य समोरण / पूरयत्यतियत्नेन पूरकध्यानयोगतः // / [गुण. 'क्रमा. श्लो. 55 ] . अर्थः-योगी पूरक ध्यान के योग से अति प्रयत्न करके * सकल देहगत नांडीसमूह को पवन करके प्राणायाम का, पूरताहै / क्या करके ? द्वादशांगुल पर्यन्त पवन स्वरूप को आकर्षण करके अर्थात् बारह अंगुलप्रमाण वाहिर से वायु को खैच करके पूरता है / यहां यह तात्पर्यार्थ है कि आकाश तत्त्व के बहते हुए नासिका के अन्दर ही पवन होता है, अरु अग्नि तत्त्व के बहते हुए चार अंगुल प्रमाण,बाहिर ऊर्ध्वगति में स्फुरित होता है, वायु तत्त्व के बहते हुए छ अंगुल प्रमाण बाहिर तिर्यग् में फिरता है, पृथिवी तत्त्व के वहते हुए आठ अंगुल प्रमाण चाहिर मध्यम भाग में रहता है, और जल तत्त्व के बहते
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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