________________ जैनतत्त्वादर्श वरं निद्रा वरं मूर्छा वरं विकलतापि वा. , नत्वातरौद्रदुर्लेश्याविकल्पाकुलितं मनः // 2 // , [गुण. क्रमा..श्लो. 53. की वृत्ति ] फिर कैसा है योगी ? संसार के उच्छेद करने वास्ते उद्यम है जिस का, क्योंकि भवच्छेदक ध्यानार्थ उत्साह वालों के ही योग की सिद्धि होती है / यदाहः उत्साहान्निश्चया?र्यात्संतोषात्तत्त्वदर्शनात् / मुनेर्जनपदत्यागात् पद्भिर्योगः प्रसिद्ध्यति // [गुण, क्रमा. श्लो. 53 की वृत्ति ] तथा मुनि-योगीन्द्र अपान द्वार मार्ग से गुदा के रास्ते अपनी इच्छा से निकलते हुए पवन को अपनी शक्ति से निरुद्ध-रोक कर ऊपर दावे द्वार में चढ़ाता है, अर्थात् मूल 'घन्ध की युक्ति करके प्राण वायु को रोक कर ऊपर ले जाता है। मूलबन्ध तो यह है: पाणिभागेन संपीड्य योनिमाकुंचयेद्गुदम् / अपानमूर्द्धमाकृष्य, मूलवंधो निगद्यते // गुण, क्रमा. श्लो. 54 की वृत्ति] यह आकुंचनकर्म ही प्राणायाम का मूल है / यदुक्तं भ्यानदण्डकस्तुती: