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________________ षष्ठ परिच्छेद 531 नासावंशाग्रभागस्थितनयनयुगो मुक्तताराप्रचारः, शेषाक्षक्षीणवृत्तिस्त्रिभुवनविवरोद्धांतयोगैकचक्षुः / पर्यकातंकशून्यः परिकलितघनोच्छासनिःश्वासवातः, सयानारंभमूर्तिश्चिरमवतु जिनो जन्मसंभूतिभीतेः // [गुण क्रमा० श्लो० 53 की वृत्ति ] फिर कैसा है योगीन्द्र ? किंचित उन्मीलित-अर्धविकसित हैं नेत्र जिसके, क्योंकि योगियों के समाधि समय में अर्द्ध विकसित नेत्र होते हैं / यदाहगंभोरस्तंभमूर्तिर्व्यपगतकरणव्यापृतिर्मन्दमंद, प्राणायामो ललाटस्थलनिहितमना दत्तनासाग्रदृष्टिः / नाप्युन्मीलनिमीलनयनमतितरां बद्धपर्यकबंधो, ध्यानं प्रध्याय शुक्लं सकलविदनवद्यः स पायाज्जिनो कः / / [गुण. क्रमा. श्लो. 53 की वृत्ति ] फिर कैसा योगीन्द्र है ? कि जिसने अपने मानस-चित्तअन्तःकरण को विकल्परूप वागुरा के बन्धन से दूर करा है, क्योंकि विकल्प ही दृढ कर्मबन्धन का हेतु है / यदाहः अशुभा वा शुभा वापि विकल्पा यस्य चेतसि / स खं वनात्ययःस्वर्णबंधनाभन कर्मणा // 1 //
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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