________________ 530 जैनतत्त्वादर्श * आहारासणनिदाजय च काउण जिणवरमएण / भाइज्जइ निय अप्पा, उपइटुं जिणवरिंदेण / / [गुण क्रमा० श्लो० 52 की वृत्ति ] पर्यकासन-जंघा के अधोभाग में पग ऊपर करने से होता है, तथा कोई एक इसको सिद्धासन भी कहते हैं, तिसका स्वरूप ऐसा हैयोनि वामपदाऽपरेण निविडं संपीड्य शिश्नं हनु, न्यस्योरस्यचलेन्द्रियः स्थिरमना लोला च ताल्वंतरे / वंशस्थैर्यतया मुनिश्चलतया पश्यन् भ्रवोरंतरम्, / योगी योगविधिप्रसाधनकृते, सिद्धासनं साधयेत् / / __ [गुण० क्रमा० श्लो० 53 की वृत्ति ] अथवा आसन का कोई नियम नहीं, चाहे कोई भी आसन होवे, जिस आसन में चित्त स्थिर हो जावे, सोई आसन ठीक है / सो कैसा योगीन्द्र है, कि नासिका के अग्र में दीनी है सत् नेत्र की दृष्टि अर्थात् प्रसन्न नेत्र हैं जिसके क्योंकि नासानन्यस्तलोचन वाला ही ध्यान का साधक होता है / यदाह ध्यानदंडफस्तुती................morn rrrrrrrrrrrrrrrrrrr.... .............maram * आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन / यायते निजक आत्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रेण //