________________ षष्ठ परिच्छेद પૂર अभ्यासेन जिताहारोऽम्यासेनैव जितासनः / अभ्यासे जितश्वासोऽभ्यासेनैवानिलटिः / / 1 / / अभ्यासेन स्थिर चित्तमभ्यासेन जितेन्द्रियः। अभ्यासेन परानंदोऽभ्यासेनैवात्मदर्शनम // 2 // अंभ्यासवर्जितैया॑नः शास्त्रस्थैः फलमस्ति न / भवेन हि फलैस्तृप्तिः पानीयमतिविम्बितैः / / 3 / / [गुण क्रमा० श्लो० 50 की वृत्ति ] इस वास्ते अभ्यास से ही विशुद्ध-निर्मल तत्त्वानुयायी बुद्धि होती है। अथ अष्टम गुणस्थान में शुक्लध्यान का आरम्भ कहते हैं। आद्य संहनन वाला क्षपक साधु इस आठमे गुणस्थान में शुक्लसद्धयान-शुक्ल नामक प्रधान ध्यान का प्रथम पादपृथक्त्व वितर्क सप्रविचार स्वरूप, का आरम्भ करता है। अथ ध्यान करने वाले का स्वरूप लिखते हैं। योगीन्द्र क्षपक मुनीन्द्र व्यवहार नय की अपेक्षा से योगी का स्वरूप निविड-दृढ पर्यकासन करके-निश्चल आसन करके, ध्यान करने योग्य होता है / क्योंकि आसनजय ही ध्यान का प्रथम प्राण है / यदाह