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________________ जैनतत्त्वादर्श अरति, भय, शोक, जुगुप्सा , इन छ प्रकृति का उपशम करता है, फिर पुरुषवेद, फिर अप्रत्याख्यानी क्रोध अरु प्रत्याख्यानी क्रोध, फिर संचलन क्रोध, फिर अप्रत्याख्यानी अरु प्रत्याख्यानी मान, फिर संज्वलन मान, फिर अप्रत्याख्यानी अरु प्रत्याख्यानी माया, फिर सज्वलन माया, फिर अप्रत्या ख्यानी रु प्रत्याख्यानी लोभ, फिर संज्वलन लोम को उपशांत करता है। अथ क्षपकश्रेणि का स्वरूप लिखते हैं / प्रथम जिस क्षपकश्रेणि में चढ़ कर योगी-क्षपक मुनि क्षपकणि कर्म क्षय करने में प्रवृत्त होता हुआ अष्टम गुणस्थान से पहिले जिन कर्म प्रकृतियों को क्षय करता है, सो लिखते हैं / चरमशरीरी अवद्धायु, अल्पकर्मी, क्षपक के चौथे गुणस्थान में नरकायु का क्षय हो जाता है अर्थात् नरक योग्य आयु का चंध नहीं करता है / तथा पांचमे गुणस्थान में तिर्यगायु का क्षय होता है, अरु सातमे गुणस्थान में देवायु का क्षय होजाता है, तथा सातमे गुणस्थान में दर्शनमोह सप्तकका भी क्षय होजाता है, तिस पीछे क्षपक साधु के एक सौ अडतीस कर्म प्रकृति की सत्ता रहती है, तब वह आठमे गुणस्थान को प्राप्त होता है। तथा यह क्षपक महात्मा कैसा है ? रूपतीत लक्षणरूप उत्कृष्ट धर्म ध्यान का जिसने पूर्ण अभ्यास किया है / क्योंकि अभ्यास करके ही तत्त्व की प्राप्ति होती है / यदाह
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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