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________________ षष्ठपरिच्छेद 527 अथ उपशमश्रेणि वाले के भवों की संख्या कहते हैं। इस संसार में बहुत भवों में चार वार उपशमश्रेणि होती है, अरु एक भव में दो वार होती है। यहाहः *उवसमसेणिचउकं, जायइ जीवस्त आभवं नृणं। सा पुण दो एगभवे, खवगस्सेणी पुणो एगा। [गुण. क्रमा. श्लो. 46 की वृत्ति] / * तथा उपशमश्रेणि की स्थापना इस अगले यन्त्र से जान लेनी / इस यंत्र की संवादक यह गाथा है:अिणदंसणपुंसित्थीवेअछकं च पुरिसवेयं च / दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उनसमेइ / / [आव. नि. गा. 116 ] अर्थ-प्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, अरु लोभ इन चारों का उपशम करता है, पीछे मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह अरु सम्यक्त्वमोह, इन तीनों का उपशम करता है, पीछे नपुंसक वेद, पीछे से स्त्रीवेद, फिर हास्य, रति छायाः-*उपशमश्रेणिचतुष्क जायते जीवस्याभवं नूनम् / सा पुनढे एकभवे, क्षपकश्रेणिः पुनरेका // + अणदर्शनपुंसकस्त्रीवेदषट्कं च पुरुषवेदं च / द्वौ द्वौ एकान्तरितौ सदृशे सदृश उपशमर्यात //
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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