________________ जैनतत्त्वादर्श - अर्थः-श्रुतकेवली, आहारक शरीरी, ऋजुमति, उपशांत मोह वाला, यह सर्व प्रमाद के वश मे अनन्त भव करते हैं, प्रमाद के वश से चार गति में वास करते हैं। अथ उपशमक जीवों को गुणस्थानों से चढना अरु पडना जिस तरह होता है, सो कहते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानों का गुणस्थान से अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में प्रारोहावरोह जाता है, अरु अनिवृतिवादरगुणस्थान से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में जाता है, अरु सूक्ष्मसंपराय वाला उपशांतमोह गुणस्थान में जाता है / तथा अपूर्वकरणादि चारों गुणस्थान से उपशमश्रेणि वाला पडकर प्रयम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है / जेकर चरमशरीरी होवे, तव सातमे गुणस्थान तक आकरके फिर सातमे गुणस्थान से आपकश्रेणि में आरुढ होता है। परन्तु जिसने एक बार उपशमश्रेणि करी होवे, सो क्षपक श्रेणि कर सकता है, अरु जिसने एक भव में दो वार उपशम श्रेणि करी होवे, सो तिसी भव में क्षपक श्रेणि नहीं कर सकता / यदाहः * जीवो हु एगजम्मंमि, इकसिं उवसामगो / खयंपि कुज्जा नो कुज्जा, दोवारे उवसामगो॥ [गुण. क्रमा. श्लो० 45 की वृत्ति ] ... छाया:-* जीव चैकजन्मनि एकश उपशमकः / क्षयमपि कुर्यात् नो कुर्यात् द्विकृत्व उपशमकः // - - - OMANIAAAAAAAAAAAnannow -~-....- An manna