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________________ षष्ठ परिच्छेद 525 सर्वथा उपशम करता है / तथा यहां उपशांतमोह गुण स्थान में जीव एक प्रकृति-सातावेदनीयरूप बांधता है, और उनसठ प्रकृति को वेदता है, तथा 148 प्रकृति की उत्कृष्टी सत्ता है। अथ उपशांतमोह गुणस्थान में जैसा सम्यक्त्व चारित्र और भाव होता है, सो कहते हैं / इस उपशांतमोह गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व अरु उपशम चारित्र होता है। तथा भाव भी उपशम ही होता है, किन्तु क्षायिक भाव तथा क्षायोपशमिक भाव नहीं होता है। अब उपशांतमोह गुणस्थान से जैसे जीव पड़ जाता है, सो कहते हैं / उपशमी मुनि तीव्र मोहोदय अर्थात् चारित्र मोहनीय का उदय पा करके उपशांतमोह गुणस्थान से पड़ जाता है / फिर मोहजनित प्रमाद में पतित होता है / जैसे कि पानी में मल नीचे बैठ जाने पर ऊपर से निर्मल हो जाता है / परन्तु फिर कोई निमित्त पाकर वह मलिन हो जाता है / यदाहः* सुयकेवलि आहारग, उजुमई उवसंतगावि हु पमाया। हिंडंति भवमणतं, तयगंतरमेव चउगइआ // [गुण क्रमा० श्लो० 44 की वृत्ति ] * श्रुतकेवलिन आहारका ऋजुमतय उपशान्तका अपि च प्रमादात्। हिण्डन्ति भवमनन्तं तदनन्तरमेव चतुर्गतिकाः //
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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