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________________ પુર जैनतत्त्वादर्श कषाय हैं, तिन का अरु नव नोकषायों का उपशमनेणी वाला उपशम करने के वास्ते अरु क्षपक-क्षपकश्रेणी वाला क्षय करने के वास्ते उद्यत रहता है। तथा सूक्ष्म परमात्मतत्त्व के भावनावल से मोहकर्म की वीस प्रकृति के उपशांत या क्षय होने पर एक सूक्ष्म खण्डीभूत लोभ का आंशिक अस्तित्व जहां है, सो सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान है / संपराय नाम कषाय का है, इस वास्ते सूक्ष्म संपराय यह दशमे गुणस्थान का नाम कहा / तथा उपशमक-उपशमश्रेणी वाला अपने सहजस्वभाव शान वल से सकल मोह कर्म के उपशांत करने से उपशांत मोहनामक एकादशम गुणस्थान चाला होता है। तथा आपक-क्षपकश्रणी वाला क्षपकश्रेणी के मार्ग द्वारा दशमे गुणस्थान से ही ग्यारहवें में न जाकर निष्कषाय शुद्धात्मभावना के बल से सकल मोह के क्षय करने पर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। यह पांचों गुणस्थानों का सामान्य प्रकार से नामार्थ कहा। ___ अव अपूर्वकरणादि अंश से ही दोनों श्रेणिका आरोह कहते हैं। तहां अपूर्वकरण गुणस्थान में आरोह के समय में अपूर्वकरण के प्रथम अंश से ही उपशमक उपशमश्रेणि में चढ़ता है, अरु क्षपक क्षपकश्रेणि में चढ़ता है / प्रथम उपरामश्रेणि के चढ़ने की योग्यता कहते हैं /
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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