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________________ 520 जैनतत्त्वादर्श , दाह का उपशम होता है, अरु लोभ के निग्रह करने से अन्दर की तृष्णा रूप तृषा का छेद होता है, ऐसा जानना / 3. आठ प्रकार की कर्मरज जो बहुत से भवों में संचित की है, उसको तप संयम से जो धो देता है; इस वास्ते तिस को भावतीर्थ कहते हैं / अन्यच्चः रुद्ध प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवृतेऽक्षप्रपंचे, नेत्रस्पंदे निरस्ते प्रलयमुपगतेऽन्तर्विकल्पेंद्रजाले / भिन्ने मोहांधकारे प्रसरति महसि क्वापि विश्वप्रदीपे, धन्यो ध्यानावलम्बो कलयति परमानन्दसिंधौ प्रवेशम् / / [गुण क्रमा, श्लो० 36 की वृत्ति] अर्थः-प्राण-श्वासोटास का प्रचार-आना जाना जिस ने रोका है, और जिस ने शरीर को वश किया है, और पांच इंद्रिय को अपने अपने विषय से रोका है, और जिस ने नेत्र का टेपकारना-झपकना चन्द किया है, तथा अन्तर विकल्परूप इंद्रजाल के लय हुये, मोह रूप अन्धकार के नष्ट हुये, अरु त्रिभुवन प्रकाशक ज्ञान प्रदीप के प्रगट हुये, धन्य वो ध्यानावलम्वी पुरुष है, जो परमानन्दरूप समुद्र में प्रवेश करता है। , .. अप्रमत्तगुणस्थानस्थ जीव 1. शोक, 2. रति,.३. अरति, 4. अस्थिर, 5. अशुभ, 6. अयश, 7. असातावेदनी, इन सातों प्रकृतियों का बन्धव्यवच्छेद करता है। अरु आहारक,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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