________________ षष्ठ परिच्छेद, 516 वर्तमान जो जीव है, वो भावतीर्यस्नान करके परम शुद्धि को प्राप्त होता है / यदाहः*दाहोवसमं तण्हाइछेयणं मलप्पवाहणं चेत्र / तिहिं अत्थेहिं निउत्त, तम्हा तं दबओ तित्थं // 1 // कोहंमि उ निग्गहिए, दाहस्सोवसमण हवा तित्थं / लोहंमि उ निग्गहिए, तण्हाएछेयणं जाण // 2 // अट्टविहं कम्मरयं, वहुएहिं भवेहिं संचियं जम्हा / तवसंयमेण धोयइ, तम्हा तं भावो तित्थं // 3 // [आव०नि०, गा० 1066-67-68] अर्थः-१. जो दाह को उपशांत करे, तृषा का छेद करे, शरीर के मल को दूर करे / तात्पर्य कि इन पूर्वोक्त तीनों अर्थों करके जो नियुक्त होवे, ऐसे जो गंगा मागधादि-तिस को द्रव्यतीर्थ कहते हैं / 2. तथा क्रोध के निग्रह करने से अन्तरंग maanammm . NNNNNN छाया:-दाहोपशमस्तृष्णाछेदनं मलप्रवाहणञ्चैव / त्रिभिरथैनियुक्तं तस्मात्तद्दव्यतस्तीर्थम् // 1 // क्रोवे तु निगृहीते, दाहस्योपशमनं भवति तीर्थम् / लोभे तु निगृहीते, तृष्णायाश्च्छेदनं जानीहि // 2 // अष्टविधं कर्मरजः बहुकैरपि भवैः सचित यस्मात् / तपः सयमेन क्षालयति, तस्मात्तद्भावतस्ततीर्थम् // 3 //