________________ 518 जैनतत्त्वादर्श ध्यान, और 4. कल्पना से रहित रूपातीत ध्यान है। इस प्रकार जिनेश्वर का कहा हुआ धर्मध्यान अप्रमत्त गुणस्थान में मुख्यवृत्ति प्रधान रूप से होता है / तथा यह रूपातीतध्यान शुक्लध्यान का अंशमात्र होने से इस सातवे गुणस्थान में शुक्ल ध्यान भी आंशिकरूप से होता है / इस अप्रमत्त गुणस्थान में आवश्यक क्रिया का अभाव है, तो भी आत्मशुद्धि होती है / अब यह वार्ता कहते हैं। ___ इस पूर्वोक्त अप्रमत्त गुणस्थान में सामायिकादि षट् आवश्यक अपेक्षित नहीं हैं / तात्पर्य कि सामायिकादि छे आवश्यक व्यवहार क्रिया रूप तो इस गुणस्थान में नहीं हैं, परंतु निश्चय सामायिकादि सब कुछ हैं। क्योंकि सामायिकादि सर्व आत्मा के गुण हैं / इस में *"आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्टे" [भग० श० 1306] अर्थात् आत्मा ही सामायिक है, अरु आत्मा ही सामायिक का अर्थ है, यह आगमवचन प्रमाण है। प्रश्नः-किस वास्ते अप्रमत्त गुणस्थान में व्यवहार क्रिया रूप पदं आवश्यक नहीं? उत्तर:-अप्रमत्त गुणस्थान में निरंतर ध्यान के सत् योग से निरंतर ध्यान ही में प्रवृत्त होता है / इस वास्ते स्वाभाविक-सहजनित संकल्पविकल्पमाला के अभाव से एक स्वभावरूप निर्मल आत्मा होती है / इस गुणस्थान में nawrshawe *आत्मा सामायिकः, आत्मा सामायिकस्यार्थः /