________________ 'षष्ठ परिच्छेद 517 अथ अप्रमत्त गुणस्थान में ध्यान का संमव कहते हैं / इस अप्रमत्त गुणस्थान में सर्वज्ञ का कहा हुआ धर्मध्यान मैञ्यादि भेद से अनेक रूप होता है / यदाहः-- ' *मैत्र्यादिभिश्चतुर्भेदं, यद्वाज्ञादिचतुर्विधम् / रूपस्थादिचतुर्धा वा, धर्मध्यानं प्रकीर्तितम् // 1 // मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि नियोजयेत् / . - धर्मध्यानमुपस्कर्तु, तद्धि तस्य रसायनम् ||2|| आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य च चिंतनात / इत्थं वा ध्येयभेदेन, धर्मध्यानं प्रकीर्तितम् ||3|| [गुण० क्रमा, श्लो० 35 की वृत्ति , तथा 1. पिंडस्थध्यान- अपने अंग अंगीका स्वरूप, 2. वाणीव्यापाररूप पदस्थध्यान, 3. संकल्पित आत्मरूप रूपस्थ *1. मैत्री भावना आदि चार भेद या आज्ञा आदि चार भेद, अथवा पिण्डस्थादि चार भेदों के अनुसार धर्मध्यान भी चार प्रकार का कहा है / 2. धर्मध्यान को वृद्धि के लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ, इन चार भावनाओं को ध्याना चाहिये। क्याकि ये इस की वृद्धि के लिये रसायन के तुल्य हैं। 3. आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, इन चार प्रकार के - ध्येयां के अनुसार धर्मध्यान भी चार प्रकार का “कहा है।