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________________ जैनतत्त्वादर्श कुर्वाणो मरुदासनेंद्रियमनाक्षुत्तर्षनिद्राजयं, योऽन्तर्जल्पनिरूपणाभिरसकृतचं समभ्यस्यति / सचानामुपरि प्रमोदकरुणामैत्री शं मन्यते, ध्यानाधिष्ठितचेष्टयाऽभ्युदयते तस्येह तनिष्ठता // 2 // उपरतवहिरन्त ल्पकल्लोलमाले, - लसदविकलविद्यापद्मिनीपूर्णमध्ये / सततममृतमन्तानसे यस्य हंसः, पिरति निरुपलेपः सोऽत्र निष्पन्नयोगी // 3 // [गुण क्रमा. श्लो०३४ की वृत्ति]. 4 - 4 - 1 2. जो मनुष्य प्राणवायु, प्रासन, इन्द्रिय, मन, क्षुधा, पिपासा तथा निद्रा. इन सब को अपने वश में करने सर्व प्राणीमात्र पर प्रमोद भावना. कारुण्य भावना तथा मैत्री भावना को धारण करके अन्तर्जल्म रूप से. ध्यानाधिष्ठित चेष्टा से तत्त्वस्वरूप का चिन्तन करते है, उन्हें वशिष्ठ योगी कहते हैं। 3. जिन योगियों के हृदय में वाह्य तथा आन्तरिक जल्पकल्लोल उपशमता को प्राप्त हो गया है. अर्थात् जिन के हृदय में किसी भी प्रकार के नंकल विकल्प पैदा ही नहीं होते / और स्वच्छ विद्यारूप विकसित कमलिनी से शोभित जिन के हृदय सगेवर मे निर्लेपतया आत्मरूपी हम सर्वदा स्वात्मानुभवरूप अमृत का पान करता है. उन्हें निष्पन्न योगी कहते है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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