________________ 515 षष्ठ परिच्छेद ध्यान-एकाग्रता रूप, ऐसा ज्ञान ध्यानरूप जिस के पास धन है, इसीवास्ते “मौनी"-मौनवान है, क्योंकि मौनवान् ही ध्यानरूप धनवान हो सकता है। तदनन्तर ज्ञान ध्यान मौनवान् उपशम करने के वास्ते अथवा क्षय करने के वास्ते सन्मुख हुआ 2 ऐसा पवित्र मुनि सप्तोत्तर मोह को, पूर्वोक्त सम्यक्त्व मोह, मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह, अरु अनंतानुबंधी चार, इन सात प्रकृति के विना शेष इक्कीस प्रकृतिरूप मोहनीय कर्म के उपशम करने के सन्मुख तथा क्षय करने के सन्मुख जब होता है, तब सालंबन ध्यान को त्याग के निरालंबन ध्यान में प्रवेश करने का आरंभ करता है / इस निरालंबन ध्यान में प्रवेश करने वाले योगी तीन तरे के होते हैं / यथा-१ प्रारंभक, 2. तनिष्ठ, 3. निष्पन्नयोग / यदाहः*सम्यग् नैसर्गिक वा विरतिपरिणति, प्राप्य सांसर्गिकौवा, काप्येकांते निविष्टाः कपिचपलचलन्मानसस्तंभनाय / शश्वनासाग्रपालीघनघटितहशो धीरवीरासनस्था ये निष्कम्पाः समाधे विदधति विधिनारंभमारंभकास्ते / / भावार्थ:- जो मनुष्य नैसर्गिक या सासर्गिक विरति-व्रत नियम वाली आत्म परिणति को प्राप्त करके, बन्दर के समान चपल मन को निरुद्ध करने के लिये, किसी पर्वत की गुफा आदि एकांत स्थान में वैठकर तथा निरन्तर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि लगा कर निष्कम्प रूप वीरासन से विधिपूर्वक समाधि का प्रारम्भ करते हैं, उन्हें प्रारम्भक योगो कहते हैं। - . . . - -