________________ 514 जैनतत्वादर्श तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तम् / / यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्वमुत्तमम् / तथा तथा न रोचंते, विषयाः सुलभा अपि // [गुण क्रमा०, श्लो० 32 की वृत्ति] तथा अप्रमत्त गुणस्थान वाला जीव जैसे मोहनीय कर्म के उपशम करने में तथा क्षय करने में निपुण होता है, तथा जैसे सद्ध्यान का आरम्भ करता है। सो कहते हैं: नष्टाशेपप्रमादात्मा व्रतशीलगुणान्वितः / ज्ञानध्यानधनो मौनी शमनक्षपणोन्मुखः / सप्तकोत्तरमोहस्य प्रशमाय क्षयाय वा / सद्धयानसाधनारम्भं कुरुते मुनिपुंगवः // [गुण क्रमा० श्लो० 33-34] अर्थः-दूर करे हैं सर्व प्रमाद जिस ने ऐसा जोजीव, तथा पांच महाव्रत का धारक, अरु अष्टादश सहस्र जो शीलांगलक्षण, तिनों करके संयुक्त, सदागम का अभ्यासी, ज्ञानवान् , उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होती जाती है, और ज्यों ज्यों उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होती जाती है, त्यो त्यों सुलभ विषयसुख भी उसे अरुचिकर होता जाता है।