________________ 513 षष्ठ परिच्छेद तिल के छेदने के वास्ते वह अवश्यमेव षडावश्यकादि क्रिया को करे। जहां तक कि ऊपर के गुणस्थानों करी साध्य जो निरालंबन ध्यान है, तिस की प्राप्ति न हो जावे / तथा प्रमत्त गुणस्थानस्थजीव चार प्रत्याख्यान के बंध का व्यवच्छेद होने से त्रेसठ प्रकृति का चैध करता है / तथा तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, नीचगोत्र, उद्योत अरु प्रत्याख्यान चार, इन आठ प्रकृतियों के उदय का उच्छेद होने से, अरु आहारकतथा आहारकोपांग इन दो प्रकृतियों का उदय होने से इकासी प्रकृति को वेदता है, अरु उस में एक सौ अडतीस प्रकृति की सत्ता है। . अथ सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान का स्वरूप लिखते हैं। पांच महाव्रत धारी साधु पांच प्रकार के अप्रमत्तगुणस्थान प्रमाद से रहित होने पर अप्रमत्तगुणस्था नस्थ होता है / क्योंकि उस में संज्वलन की चारों कषायों तथा नोकषायों का भी उदय मंद होवे है। तात्पर्य यह कि संज्वलन कषाय तथा नोकषायों का जैसा जैसा मंदोदय होता है, तैसे तैसे साधु अप्रमत्त होता है। यदाहः *यथा यथा न रोचते, विषयाः सुलभा अपि / *भावार्य.--सुलभता से प्राप्त हुआ पाचों इन्द्रियों संबंधी विषयसुख ज्या ज्यों मनुष्य को अरुचिकर होता है, त्यों त्यों उसे सम्यक् ज्ञान मे