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________________ 512 . जैनतत्त्वादर्श / परसमय में जो प्रसिद्ध पुरुष हुये हैं, तिनों ने परमात्मतत्व संवित्ति में मनोरथ ही करा है / तथा मनोरथ जो लोक में करते हैं, सो दुष्प्राप्य वस्तु का ही करते हैं / जो वस्तुं. सुख से मिल जावे, तिस का मनोरथ कोई भी नहीं करता। जो.सदा मिष्टान्न खाता है, अरु बड़ा भारी राज्य भोगता है, वो कभी मिष्टान्न ख़ाने का अरु राज्य भोगने का मनोरथ नहीं करता / इस वास्ते सर्व प्रकार से प्रमत्तगुणस्थानस्थ विवेकी जनों ने परम संवेग में आरूढ होने वाले अप्रमत्त गुणस्थान का स्पर्श भी करा.है / तो भी परम शुद्ध परमात्मतत्त्वसंवित्तिका मनोरथ तो करना / परन्तु उन को षट्, कर्म, षडावश्यकादि व्यवहार क्रिया का परिहार कभी ना करना चाहिये / और जो मूढ योगग्रह करके ग्रस्त हैं, अरु सदाचार व्यवहार से पराङ्मुख, हैं, तिनाका योग भी किसी काम का नहीं है। उन का यह लोक भी नहीं और परलोक भी नहीं, क्योंकि वो जीव जडात्मा हैं / यतः• 'योगिनः समतामेतां प्राप्य कल्पलतामिव / सदाचारमयीमस्यां, वृत्तिमातन्वतां वहिः / / ये तु.योगग्रहग्रस्ताः, सदाचारपराङ्मुखाः / एवं तेपां न योगोऽपि न लोकोऽपि जडात्मनाम् / / [गुण क्रमा० श्लो० 30 की वृत्ति ] इस वास्ते साधु को जो दृषण दिन रात्रि में लगता है,
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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