________________ षष्ठ परिच्छेद / इन श्लोकों का थोड़ासा अर्थ भी लिख देते हैं:-१. चित्र की वृत्ति का. निरोध करके, इन्द्रियलमूह और इंद्रियों के विषयों को दूर करके, तदनन्तर पवन अर्थात् श्वासोवास की गतागति को रोक करके, अरु धैर्य का अवलंबन करके, पद्मासन से बैठ करके, शिवके वास्ते विधि संयुक्त किसी पर्वत की गुफा में बैठ करके, एक वस्तु पर दृष्टि रख कर, मुझ को अंतर्मुख, रहना योग्य है / 2. चित्त के निश्चल होने पर राग, द्वेष, कषाय, निद्रा. मद.के शांत हुए, इन्द्रिय. समूह के दूर हुए, तथा भ्रमारंभक अन्धकार के दूर होने से, आनंद के प्रगट वृद्धिमान भये, ज्ञान के प्रकाश भये, ऐसी अवस्था में, बन में रहे हुए मेरे को दुष्टाशयः वाले सिंह कब देखेंगे ?.. तथा श्रीसूरप्रभाचार्य भी कहते हैं। 3. हे भगवन् ! तुमारे आगमरूप भेषज से राग रूप रोग को निवृत्त करके, निर्मल चित्त होकर, कब वो दिन आवेगा कि जिस दिन मैं समाधि रूपी लक्ष्मी को देखूगा ? तथा श्रीहेमचंद्र सूरि जी, कहते , हैं:-४, वन में पद्मासन से बैठे हुए. और जिस की गोद में हिरण का बच्चा बैठा हुआ है, ऐसे मुझ को हिरणों के स्वामी बूढ़े मृग कब सूंधेगे [अरु मैं अपनी समाधि में स्थित रह] 5. तथा शत्रु अरु मित्र में, तृण अरु स्त्री में, सुर्वण अरु पाषाण में, मणि अरु महि में, मोक्ष अरु संसार में निर्विशेषमति, मैं कब होऊंगा? ऐसे ही मंत्री वस्तुपाल ने तथा परमत में भर्तृहरि ने भी मनोरथ ही करा है। इस प्रकार स्वसमय और