________________ - षष्ठपरिच्छेद 509 अर्थः-जेकर जिनमत को अंगीकार करते हो, और जैनमत में साधु होते हो, तो व्यवहार निश्चय का त्याग मत करो। क्योंकि व्यवहार नय के उच्छेद होने से तीर्थ का उच्छेद हो जायगा। इस बात पर यह दृष्टांत है, कि कोई 'एक पुरुष अपने घर में सदा बाजरे की रोटी खाता है। किसी ने उस को निमन्त्रण करके अपूर्व मिष्टान का आहार कराया, तब वो उस के स्वाद का लोलुपी हो कर अपने घर की बाजरे की रोटी निःस्वाद जान कर खाता नहीं, और उस दुष्प्राप्य मिष्ठान्न की अभिलाषा करता है, परन्तु 'वह मिष्टान्न उस को मिलता नहीं / तब वो जैसे उभयभ्रष्ट होता है, तैसे ही जीव भी कदाग्रहरूप भूत के लगने से प्रमत्तगुणस्थानसाध्य स्थूलमात्र पुण्यपुष्टि का कारण षडावश्यकादि कप्रक्रिया को नहीं करता हुआ, कदाचित् अप्रमत्त गुणस्थान में प्राप्त होने वाले अमृत आहार तुल्य निर्विकल्प मनोजनित समाधिरूप निरालंबन ध्यान के अंश को प्राप्त हो गया है, तब तिस निरालंबन ध्यान से उत्पन्न हुआ जो परमानंदरूप सुखस्वाद, तिस करके प्रमत्त गुणस्थानगत षडावश्यकादि कप्रक्रिया कर्म को कदन्न के समान जानकर कर उस का सम्यक् आराधन नहीं करता, और मिष्टान्न तुल्य निरालंबन ध्यानांश तो प्रथम संहनन के अभाव से प्राप्त होता नही है, तव षडावश्यक के न करने से उभयभ्रष्ट हो जाता है / क्योंकि निरालंबन ध्यान का मनोरथ ही पंचम | काल के महामुनि ऋषियों ने करा है / तथाच पूर्वमहर्षयः--