________________ / 117 जैनतत्त्वादर्श .. *अथ जो कोई प्रमत्त गुणस्थान में . निरालम्बन धर्मध्यान कहे, तिस का निषेध करते हैं / जिनभास्कर-जिनसूर्य ऐसे कह गये हैं, कि जो साधु जहां लगि प्रमाद संयुक्त होवे, तहां लगि तिस साधु को निरालंबन ध्यान नहीं होता है / क्योंकि इहां प्रमत्त गुणस्थान में मध्यम धर्मध्यान की भी गौणता ही कही है, परन्तु मुख्यता नहीं। तिस वास्ते प्रमत्त गुणस्थान में उत्कृष्ट निरालंब धर्मध्यान का संभव नहीं। __ अथ जो यह अर्थ न माने, तिस को कहते हैं कि जो साधु प्रमाद युक्त भी आवश्यक-सामायिकादि षडावश्यकसाधक अनुष्ठान का परिहार करके निश्चल-निरालंबन ध्यानाश्रित होवे, वो साधु मिथ्यात्वमोहित-मिथ्याभाव करके मूढ हुआ 2 जैनागम-श्रीसर्वज्ञप्रणीत शास्त्र को नही जानता। क्योंकि वो साधु व्यवहार को तो छोड़ बैठा है, और निश्चय को प्राप्त नहीं हुआ है। अरु जो जिनागम के जानने वाले हैं, सो तो व्यवहार पूर्वक ही निश्चय को साधते हैं / यदाहःजिइ जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहारनिच्छए मुयह / ववहारनउच्छए, तित्थच्छेए जो भणिओ // [पञ्च वस्तुक गा० 172] འ གའལ་འག བཀའ བཀའགའ་ བའག འཆའང་འ་་་་ * यह समम पाठ गुणस्थानक्रमारोह के श्लोक 29-30 की टीका का अक्षरश: अनुवाद है / + छायाः-यदि जिनमतं प्रपद्येयास्तन्मा व्यवहारनिश्चयो मुचः / व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यम् //