________________ षष्ठ परिच्छेद "507 और संस्थानविचय धर्मध्यान के चार पाद हैं / उक्तं चः आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य च चितनात् / इत्थं वा ध्येयभेदेन, धर्मध्यानं चतुर्विधं / / . [गुण क्रमा० श्लो० 28 की वृत्ति] भावार्थ:-आशा उस को कहते हैं, कि जो कुछ. सर्वज्ञ अर्हत भगवंत ने कहा है, सो सर्व सत्य है / अरु जो बात मेरी समझ में नहीं आती है, वो मेरी बुद्धि की मंदता है। तथा दुषम काल के प्रभाव से, संशय मिटाने वाले गुरु के अभाव से, इत्यादि अन्य निमित्तों से मेरी समझ में नहीं आता / परन्तु अर्हत भगवंत के कहे हुए वाक्य तो सत्य ही हैं, क्योंकि उन के मृषा चोलने का. कोई भी निमित्त नहीं है / ऐसा जो चिंतन करना सो आज्ञा विचयनामा प्रथम भेद है / तथा राग, द्वेष, कषायादिकों से जो अपाय-कष्ट उत्पन्न होते हैं, तिन का जो चिंतन करना, सो अपाय विचयनामा दूसरा भेद है / तथा क्षण क्षण प्रति जो कर्मफलो. दय विचित्र रूप से उत्पन्न होता है, सो विपाक विचयनामा तीसरा भेद है / तथा यह लोक अनादि अनंत है, अरु उत्पाद, व्यय, ध्रुव रूप सर्व पदार्थ हैं, तथा पुरुषाकार लोक का संस्थान है, ऐसा जो चिंतन करना, सो संस्थान विचयनामा चौथा भेद है / इत्यादि आलंबन युक्त धर्मध्यान की गौणता प्रमत्त गुणस्थान में है, किन्तु प्रमाद.युक्त होने से मुख्यता नहीं।