SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 548
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 505 षष्ठ परिच्छेद . इन का विस्तार देखना होवे, तदा पंचाशकनामा शास्त्र के प्रतिमा पंचाशक में देख लेना / श्रावक के व्रत बारह हैं, सो आगे चल कर लिखेंगे / यह षट् कर्म, एकादश प्रतिमा, बारह व्रत, इन के पालन में मध्यम धर्म ध्यान होता है / तथा देशविरति गुणस्थानस्थ जीव अप्रत्याख्यानी चार कषाय, नरकगति, नरकायु, नरकानुपूर्वी, यह नरकत्रिक, आध संहनन तथा औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, यह औदारिक द्विक, यह सब मिलकर दश कर्मप्रकृति का बंधव्यच्छेद' होने से सतसठ कर्मप्रकृति का बंध करता है / तथा अप्रत्याख्यान चार, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, नरकत्रिक, देव त्रिक, वैक्रिय द्विक, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति, इन संतरीकर्मप्रकृतियों के उदय का व्यवच्छेद करने से सत्ताली कर्मप्रकृति को वेदता है / अरु एक सौ अडतीस प्रकृति की सत्ता है। पांच गुणस्थान के उपरांत जितने गुणस्थान हैं, तिन में से तेरहवें गुणस्थान को वजे के शेष के सर्व गुणस्थानों की अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति है। ___ अब छठे प्रमत्तसंयत' गुणस्थान का स्वरूप लिखते हैं। सर्व विरति साधु छठे प्रमत्त गुणस्थान में प्रमत्त गुणस्थान होता है, जो कि अहिंसादि पांच महावत का धारक है। प्रमाद के होने से साधु प्रमत्त होता है। प्रमाद पांच प्रकार का है। यदाहः
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy