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________________ 504 जैनतत्त्वादर्श ध्यान मंद मंदतर होता जाता है। अरु धर्म ध्यान तो जैसे जैसे देशविरति अधिक होती है, तैसे तैसे अधिक अधिक होता हुआ मध्यम रूप ही रहता है, किंतु उत्कृष्ट धर्मध्यान नहीं होता है / जेकर उत्कृष्ट धर्मध्यान हो जावे, तव सर्व विरति हो जायगा। इस पांचमे गुणस्थान सम्बन्धी धर्मध्यान में षद् कर्म, एकादश प्रतिमा, और श्रावक व्रत पालन का संभव है। __षद् कर्म का नाम कहते हैं:-१. तीर्थकर अहंत भगवंत वीतराग सर्वज्ञ की प्रतिमा द्वारा पूजा करे, 2. गुरु की सेवा करे, 3. स्वाध्याय, 4. संयम. 5. तप, 6. दान, यह षट् कर्म हैं। यदुक्तंः देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने दिन // [उप० तरं०, तरं० 3 श्लो० 1] __प्रतिमा अभिग्रहविशेष को कहते हैं, उस के नाममात्र यह हैं:* दंसण वय समाइय, पोसह पडिमा अवंभ सचित्ते / प्रारंभ पेस उद्दिट्ट, वज्जए समणभूए य / / [पंचा० प्रतिमाधि० गा०५] *शया-दर्शनव्रतसामायिकपोषधप्रतिमाऽब्रह्मसच्चितानि / पारम्भप्रेषोद्दिष्टवर्जकः श्रमणभूतश्च // m
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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