________________ 102 जैनतत्त्वादर्श सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला जीव तीर्थकर नामकर्म, मनुष्यायु, देवायु, इन तीन प्रकृति को तीसरे गुणस्थान से अधिक बांधता है / इस वास्ते सतत्तर प्रकृति का वंध करता है / तथा मिश्र मोह के व्यवच्छेद होने से आनुपूर्वी चतुष्क, अरु सम्यक्त्वमोह के उदय होने से एक सौ चार कर्म प्रकृति को वेदता है / अरु क्षायिक सम्यकत्व वाले में 138 प्रकृति की सत्ता होती है / अरु उपशम सम्यक्त्व वाले को चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुगस्यान पर्यंत 148 कर्मप्रकृति की सत्ता है / तथा क्षायिकसम्यक्त्व वाले को जिस जिस गुण स्थान में जितनी जितनी कर्मप्रकृति की सत्ता है, वह आगे चल कर लिखेंगे। अथ पंचम गुणस्थान का स्वरूप लिखते हैं / जीव को सम्यग् तत्त्वावबोध से उत्पन्न हुआ जो वैराग्य, - देशविरति तिस से सर्वविरति की वांश करता भी है, गुणस्थान तो भी सर्वविरतिघातक प्रत्याख्यान नाम कषाय के उदय से सर्व विरति का अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं, किन्तु जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टरूप देशविरति ही हो सकता है / तिनमें जघन्य देशविरंति-आकुट्टि * स्थूलहिंसादि का त्याग, मद्य मांसादि का परिहार, अरु 'परमेष्ठि नमस्कार का स्मरण करता है। यदाहः