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________________ षष्ठ परिच्छेद अव सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की गति कहते हैं। जीव के परिणाम विशेष को करण कहते हैं, तोन करण सो करण तीन प्रकार का होता है-१ यथा प्रवृत्तिकरण, 2. अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। 'तहां पर्वत की नदो के जल से आलोड्यमान पाषाण की तरह घचना-घोलना न्याय से यह जोव आयु कर्म को वर्ज कर शेष सातों कर्मों की स्थिति को किचित् न्यून एक कोटाकोटी सागरप्रमाण को करता हुआ, जिस अध्यवसाय विशेष से ग्रंथिदेश-ग्रंथिके समीप तक आता है, उसको यथाप्रवृत्तिकरण कहते है / 2. पूर्व में नही प्राप्त हुआ है जो अध्यवसायविशेष, तिस करके घन-निविड राग द्वेष परिणतिरूप ग्रंथि के 'भेदने का जो आरम्भ, तिस को अपूर्वकरण कहते हैं / 3. तथा जिस अनिवर्तक अध्यवसाय विशेष से ग्रंथिभेद करके अति परम आनंद जनक सम्यक्त्व को यह जीव प्राप्त करता है, तिस का नाम अनिवृत्तिकरण है / यह तीनों ‘करण का स्वरूप श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आचार्य, आवश्यक की शुओंभोनिधिगंधहस्तीमहाभाष्य में लिखते हैं / तीन पथिक के दृष्टांत से तीनों करण का स्वरूप दिखाते हैं / जैसे तीन पथिक उजाड़ के रस्ते चले जाते थे, तहां चलते चलते विकाल वेला हो गई और सूर्य अस्त हो गया, तब वे पंथी मन में बहुत डरने लगे। इतने में उस वखत तत्काल वहां दो , चोर आ पहुंचे / तिन चोरों को देखकर उन में से एक पथिक
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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