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________________ 46. जैनतत्त्वादर्श. भी करता है, परन्तु कोटवाल के समान दूसरे अप्रत्याख्यानो . कषाय के पाशों से छूटने का उत्साह भी नहीं कर सकता। किन्तु अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का ही अनुभव करता है। इस अविरति.सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की स्थिति उत्कृष्टी * तो कुछ अधिक तेत्तीस सागरोपम प्रमाण की है / परन्तु 33 सगरोपम की यह स्थिति सर्वार्थसिद्धादि विमानवासियों की समझनी / और जो अधिक कही है, वह देवलोक से / च्यव कर मनुष्य सम्बन्धी जाननी / तथा यह सम्यक्त्व उस जीव को प्राप्त होता है, जिसका अर्द्ध पुद्गलपरावर्त मात्र शेष संसार रह जाता है, दूसरों को नहीं। अव सम्यग्दृष्टि का लक्षण कहते हैं / 1. दुःखी जीव के दुःख दूर करने की जो चिन्ता, तिसका नाम कृपा है / 2. किसी कारण से क्रोध उत्पन्न भी हो गया है, तो भी तीव अनुशय अर्थात तीन वैर नहीं रखना, तिसका नाम प्रशम है। 3. सिद्धिसौध के चढ़ने के वास्ते सोपान के समान सम्यग् शानादि साधनों में उत्साह लक्षण मोक्षाभिलाषा का नाम संवेग है / 4. अत्यन्त कुत्सित संसाररूप बन्दीखाने से निकलने के वास्ते परम वैराग्य रूप दरवाजे के पास भी जाने का नाम निर्वेद है / 5. श्री सर्व प्रणीत - समस्त भावों के अस्तित्व की चिन्तना का नाम प्रास्तिक्य हैं / यह पाँच लक्षण जिस जीव में होवें, वह भव्य जीव सम्यग् दर्शन, करके अलंकृत होता है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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