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________________ षष्ठं परिच्छेद 467 अर्थात् पूर्वभव के अभ्यास विशेष अथवा गुरू के उपदेश से जो अत्यन्त निर्मल रुचि-भावना प्रगट-उत्पन्न होती है, सो सम्यक्त्व है / इलो को सम्यक् श्रद्धान भी कहते हैं / यदाहः रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते / जायते तन्निसगैण, गुरोरधिगमेन वा॥ [यो श० प्र० 1 श्लो० 17 ] यह अविरति सम्यगदृष्टिपना जैसे होता है, तैसे कहते हैं। दुसरा कषाय-अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोम के उदय से वर्जित विरतिपना-व्रत नियम रहित, केवल सम्यक्त्व मात्र हो जहां पर होवे, सो चौथे गुणस्थान वालों को अविरति सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान होता है। इस का तात्पर्य यह है, कि जैसे कोई पुरुष न्यायोपपन्न धन भोग विलास सौन्दर्यतालिकुल में उत्पन्न हुआ है, परन्तु दुरंत जूा आदि व्यसनों के सेवन करने से अनेक प्रकारके अन्याय कर रहा है, सो किसी अपराध के करने से उसको राज से दण्ड मिला। तब वह पुरुष कोटवाल आदि राजकीय पुरुषों से विडब्यमान, अपने व्यसन जनित कुत्सित कर्म को विरूप जानता हुआ, अपने कुल के सुन्दर सुख संपदा की अभिलाषा भी करता है, परन्तु कोटवालों से छूट कर सुख का उच्छास भी नहीं ले सकता / तैसे ही यह जीव भी अविरतिपने को खोटे कर्म का फल जानता हुआ, विरति के सुन्द्र सुख की अभिलाषा
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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