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________________ 499 जैनसत्त्वादर्भ नहीं जाते / तथा जिन जीवों ने मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में पूर्व से प्रायु बांधा है, अरु पीछे उन को मिश्रगुणस्थान प्राप्त हुआ है / जब वह मरेगा, तब जिस गुणस्थान में उसने प्रायु बांधा है, उसी गुण स्थान में जाकर वह मरता है। और गति भी उसकी उसी मरण वाले गुणस्थान के अनुसार होती है / तथा मिश्रगुण स्थान वाला जीव, 1. नरक गति, 2. नरकायु, 3. नरकानुपूर्वी, ६.स्त्यानद्धित्रिक, 7. दुर्भग, 8. दुःस्वर, 6. अनादेय, 13. अनंतानुबंधी चार, 17. मध्य के चार संस्थान, 21. मध्य के चार संहनन, 22. नीच गोत्र, 23. उद्योत नाम, 24. अप्रशस्तविहायोगति, 25. स्त्रीवेद, इन पच्चीस प्रकृति के वन्ध का व्यवच्छेद करता है / तथा मनुष्यायु और देवायु को भी नहीं बांधता है। इन सत्तावीस प्रकृति के विना शेष चौहत्तर प्रकृति का बन्ध करता है / तथा अनंतानुवन्धी चार, स्थावर नाम, एकेन्द्रिय, विकलत्रिक, इन के उदय के व्यवच्छेद होने से मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, इन दोनों के उदय न होने से मिश्र का उदय होने से एक सौ प्रकृति को वेदता है / अरु पूर्वोक्त 147 प्रकृति की सत्ता है / भय चौथा प्रविरतिसम्यग् दृष्टि गुणस्थान का स्वरूप __ लिखते हैं / तहां प्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति का अविरति सम्यग् स्वरूप कहते हैं / भव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव दृष्टि गुणस्थान का यथोक्ततत्त्व-यथावत् सर्ववित् प्रणीत तत्त्वों में-जीवादि पदार्थों में निसर्ग से
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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