________________ षष्ठ परिच्छेद - 415 के मिलने से जो अन्तर्मुहूर्त यावत् मिश्रित भाव है, जीव सम्यक्त्व, मिथ्यात्व दोनों के एकत्र मिलने से मिश्रभाव में वत्र्ते है, सो मिश्रगुणस्थानस्थ होता है। क्योंकि मिश्रपना जो है, सो दोनों के मिलने से एक जात्यंतर रूप है / जैसे घोड़ी और गधा, इन दोनों के संयोग से जात्यंतर खच्चर उत्पन्न होता है, अथवा जैसे गुड़ दही के मिलने से जात्यंतर रस शिखरणी रूप उत्पन्न होता है, तैसे ही जिस जीव को सर्वज्ञ असर्वज्ञ के कहे दोनों धर्मों में समबुद्धि से एक सरीखी श्रद्धा उत्पन्न होवे, सो जात्यंतरभेदात्मक होने से मिश्रगुणस्थान होता है / तथा जब यह जीव मिश्रगुणस्थान वाला होता है, तब परभव का आयु नहीं बांधता है, अरु मिश्र गुणस्थान में वर्त्तता हुआ जीव, मरता भी नही है, वह या तो सम्यगदृष्टि होकर चौथे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आरोह करके मरता है, अथवा कुदृष्टि हो कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक में पीछे आ कर मरता परन्तु किन्तु मिश्रगुण स्थान में रहता हुआ नहीं भरता / इस मिश्र गुण स्थान की तरे वारहवां क्षीणमोह, अरु तेरहवां सयोगी, इन दोनों गुणस्थानों में रहता हुआ भी जीव नहीं मरता है / शेप ग्यारह गुणस्थानों में काल कर जाता है। तथा मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरति सम्यग्दृष्टि, यह तीन गुणस्थान जीव के साथ परभव में जाते हैं / शेष के ग्यारह गुणस्थान