________________ 464 जैनतत्त्वादर्श ऊर्ध्व आरोहणरूप होने से गुणस्थान है / क्योंकि मिथ्यात्व' गुणस्थान तो अभव्य जीवों को भी होता है, परन्तु सास्वादन तो भव्य जीवों ही को हो सकता है। भव्य जीवों में भी जिस का अर्द्ध पुद्गलपरावर्त शेष संसार है, तिस ही को होता है / इस वास्ते सास्वादन को भी मिथ्यात्व गुणस्थान से आरोहरूप गुणस्थानत्व हो सक्ता है / तथा सास्वदन गुण स्थान में वर्तता हुआ जीव, 1. मिथ्यात्व, 4. *नरकत्रिक, 8. एकेद्रियादि जाति चतुष्क, 6. आतपनाम, 10. स्थावरनाम, 11. सूक्ष्मनाम, 12. अपर्याप्तनाम, 13. साधारणनाम, 14. हुडकसंस्थान, 15. सेवार्तसंहनन, 16. नपुंसक वेद, यह सर्व सोलां प्रकृति के बंध का व्यवच्छेद करता है, और शेष की एक सौ एक प्रकृतियों का बंध करता है। तथा सूक्ष्मत्रिक, आतप, मिथ्यात्वोदय, नरकानुपूर्वी, इन छ प्रकृतियों के उदय का व्यवच्छेद होने से 111 कर्म प्रकृतियों को वेदता है / तथा तीर्थकर नाम की प्रकृति के विना 147 प्रकृतियों की सत्ता है। अब तीसरे मिश्रगुणस्थान का स्वरूप लिखते हैं / दर्शन मोहनीय कर्म की द्वितीय प्रकृति रूप मिश्र मिश्र गुणस्थान मोहकर्म के उदय से जीव विषयक जो समकाल समरूप करके सम्यक्त्व मिथ्यात्व समकाल * नरक गति, नरकायु और नरकानुपूर्वी / + एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक /