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________________ षष्ठ परिच्छेद उदय में आये मिथ्यात्व का क्षय किया है, तथा,जो मिथ्यात्व उदय में नहीं आया, तिल का उपशम किया है, एवं अन्तरकरण से अंतर्मुहूर्त्तकाल तक सर्वथा मिथ्यात्व के अवेदक को अंतरकरण औपशमिक सम्यक्त्व होता है / यह सम्यक्त्व जीव को एक ही बार होता है / तथा उपशमश्रेणिप्रतिपन्न को मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायों के उपशम होने से स्वश्रेणिगत औपशमिक सम्यक्त्व होता है / यह दोनों प्रकार का जो उपशम सम्यक्त्व है, सो सास्वादन नाम के दूसरे गुणस्थान के उत्पत्ति में मूल कारण है। . अब सास्वादन का स्वरूप लिखते हैं / औपशमिक सम्य क्त्व वाला जीव शांत हुये अनंतानुबंधी चारों सास्वादन गुण- कषायों में से एक भी क्रोधादिक के उद्य ___स्थान होने पर औपशमिकसम्यक्त्वरूप गिरिशिखर से यह जीव परिच्युत-भ्रष्ट हो जाता है / जहां तक वह मिथ्यात्व रूप भूतल को नहीं प्राप्त हुआ, तहां तक एक समय से ले कर षट् आवलिका प्रमाण समय तक सास्वादन गुणस्थानवी होता है। प्रश्न -व्यक्त वुद्धि प्राप्तिरूप प्रथम अरु मिश्रादि गुणस्थानों को उत्तरोत्तर चढ़ने का कारणभूत होने से तो गुणस्थानपना युक्त है / परंतु सम्यक्त्व से पड़ने वाले पतनरूप सास्वादन को गुणस्थानपना कैसे संभवे ? उत्तरः-मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा सास्वादन भी
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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