________________ 492 जैनतत्त्वादर्श प्रकृति का बंध करता है। तथा एक सौ बावीस जो उदयप्रायोग्य कर्म प्रकृतिये हैं, तिन में से मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, आहारक, आहारकोपांग, तीर्थकर नाम, यह पांच कर्मप्रकृति को वर्ज के शेष की एक सौ सतरां प्रकृति का उदय है / अरु एक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृति की सत्ता है। __ अब दूसरे सास्वादन नाम के गुणस्थान का स्वरूप कहते हैं / उस में इस गुणस्थान का कारणभूत जो उपशम सम्यक्त्व है, प्रथम तिस का स्वरूप कहते हैं / जीव में अनादि काल संभूत मिथ्यात्व कर्म की उपशांति से-अनादि काल से उद्भव हुए मिथ्या कर्म के उपशम होने से अर्थात ग्रन्थिभेद करने के समय से औपमिक सम्यक्त्व होता है। यह इस का सामान्य स्वरूप है / और विशेषस्वरूप ऐसे है। औपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार का है। एक तो अंतरकरणौपशमिक सम्यक्त्व, दूसरा स्वश्रेणिगत अर्थात् उपशमश्रेणिगत औपशमिक सम्यक्त्व है / तहां अपूर्वकरण करके ही करा है अन्थिभेद जिस ने, तथा नहीं करे हैं मिथ्यात्व कर्म रूप पुद्गलराशि के तीन पुंज जिसने [1. अशुद्ध, 2. अर्द्धशुद्ध, 3. शुद्ध, इस में अशुद्ध पुंज जो है, सो मिथ्यात्व मोहनीय है, अरु अर्द्ध शुद्ध जो है, सो मिश्र मोहनीय है, तथा शुद्ध पुंज जो है, सो सम्यक्त्व मोहनीय है / इन का स्वरूप पीछे लिख आये हैं। यह तीनं पुंज हैं ] और