________________ षष्ठ परिच्छेद 491 ही मिथ्यात्व करके मोहित जीव धर्माधर्म को सम्यक्-भली प्रकार नही जानता है / यदाहः* मिथ्यात्वेनालीढचित्ता नितांतं, तत्त्वातचं जानते नैव जीवाः / कि जात्यंधाः कुत्रचिद्वस्तुजाते, रम्यारम्यं व्यक्तिमासादयेयुः // [गुण क्रमा०, श्लो०८ की वृत्ति] अभव्य जीवों की अपेक्षा जो मिथ्यात्व है, तथा सामान्य प्रकार से जो अव्यक्त मिथ्यात्व है, इन की स्थिति अनादि अनंत है, परन्तु भव्य जीवों की अपेक्षा वह स्थिति अनादि सांत है / यह स्थिति सामान्य प्रकार से मिथ्यात्व की अपेक्षा दिखलाई है। जेकर मिथ्यात्व गुणस्थानक की स्थिति का विचार करिये तो भव्य जीवों की अपेक्षा वह अनादि सांत और सादि सांत भी है / तथा अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है / मिथ्यात्व गुणस्थानक में रहा . हुआ जीव एक सौ बीस बंधप्रायोग्य कर्मप्रकृतियों में से तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति, आहारक शरीर, आहार कोपांग, यह तीन प्रकृति नहीं चांधता है, शेष एक सौ सतरां * भावार्थ:-मिथ्यात्वग्रसितचित्त जीव तत्त्वातत्त्व का किंचित् भी विचार नही कर सकते / जैसे कि जन्माध प्राणी रम्यारम्य वस्तु का ज्ञान नहीं कर सकते। - M