________________ .460 जैनतत्त्वादर्श प्रश्न:-अमिथ्यात्व गुणस्थान में सर्व जीवों के स्थान मिलते हैं, यह जैन शास्त्र का कथन है / तो फिर व्यक्त मिथ्यात्व की बुद्धि को गुणस्थान रूपता कैसे कहते हो? उत्तर:- सर्वभाव सर्व जीवों ने पूर्व में अनंतवार पाया है। इस वचन के प्रमाण से जो प्राप्तव्यक्तमिथ्यात्व बुद्धि वाले जीव व्यवहार राशिवर्ती हैं, वे ही प्रथम गुणस्थान वाले जीव कहे जाते हैं, किंतु अव्यवहार राशिवर्ती जीव नहीं / वे तो अव्यक्त मिथ्यात्व वाले हैं, इस वास्ते कोई 'दोष नहीं। ___ अव मिथ्यात्व रूप दूषण का स्वरूप कहते हैं। जैसे जीव मनुष्यादिक प्राणी, मदिरा के उन्माद से नएचैतन्य होता हुआ अपना हित वा अहित, कुछ भी नहीं जानता है, तैसे मुत्तसण्णा मुत्तेसु अमुत्तसण्णा / छाया-दशविधं मिथ्यात्वं प्रज्ञप्त. तद्यथा-अधर्मे धर्मसंज्ञा, धर्म अधर्मसंत्रा, उन्मार्गे मार्गमना. मार्गे उन्मार्गसंज्ञा, अजीवेषु जीवसंज्ञा जीवेषु अजीवसंजा. असाधुपु साधुसना, साधुषु असाधुसंजा, अमूत्तेषु मूर्तसंज्ञा, मूर्तपु अमूर्तसंज्ञा / - [स्थाना० स्था० 1 सू० 734 ] . * “सव्वजिअठाणमिच्छे" गुण. क्रमा० की टीका में उद्धत पागम वाक्य / + “सर्व भावाः सर्वजीवैः प्राप्तपूर्वा अनन्तश"। [इलो० 6 की उक्त टोका में ]