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________________ "489 पष्ट परिच्छेद की बुद्धि होवे, सो* व्यक्तमिथ्यात्व है / उपलक्षण से जीवादि नव पदार्थों में जिस की श्रद्धा नहीं, अरु ज़िनोक्त तत्त्व से जो विपरीत प्ररूपणा करनी, तथा जिनोक्त तत्त्व में संशय रखना, जिनोक्त तत्त्व में दूषणों का आरोप करना, इत्यादि / तथा अभिन्नाहिकादि. जो पांच मिथ्यात्व हैं, उन में एक अनाभोगिक मिथ्यात्व तो अव्यक्त मिथ्यात्व है शेष चार भेद व्यक्त मिथ्यात्व के हैं / तथा "अधम्मे धम्मसण्णा" इत्यादि / दश प्रकार का जो मिथ्यात्व है, सो सर्व व्यक्त मिथ्यात्व है / अपर-दूसरा, जो अनादि काल ले मोहनीय प्रकृति रूप, सद्दर्शनरूप आत्मा के गुण का आच्छादक, जीव के साथ सदा अविनाभावी है, सो अव्यक्त मिथ्यात्व है। ____ अव मिथ्यात्व को गुण स्थान किस रीति से कहते हैं, सो लिखते हैं / अनादि काल से अव्यवहार राशिवर्ती जीव में सदा से ही अव्यक्त मिथ्यात्व रहता है, परंतु उस में व्यक्त मिथ्यात्व बुद्धि की जो प्राप्ति है, उसी को मिथ्यात्व गुणस्थान के नाम से कहा है। * अदेवागुर्वधर्मेपु या देवगुरुधर्मधीः / तन्मिथ्यात्वं भवेधक्तमव्यक्तं मोहलक्षणम् // [गुण० क्रमा०, श्लो० 6 की वृत्ति] | इस सूत्र का समग्रपाठ इस प्रकार है:दसविहे मिच्छत्ते पनत्ते, तं जहाः - अधम्मे धम्मसण्णा धम्मे अधम्मसण्णा उम्मग्गे मग्गसपणा मग्गे उम्मग्गसण्णा * अजीवेसु जीवसण्णा जीवसु अजीवसण्णा असाहुसु साहुमण्णा, साहुसुआसाहुसण्णा अमुत्तेसु.
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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