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________________ पंचम परिच्छेद 485 नहीं / सिद्ध जो है, सो नोभव्य नोअभव्य है / यह आप्त वचन भी है / [12] क्षायिक, क्षायोपशमिक, उपशम, सास्वादन, अरु वेदक, यह पांच प्रकार का सम्यक्त्व है / इन का विपक्षी एक मिथ्यात्व, दूसरा सम्यक्त्व मिथ्यात्व-मित्र है / तिन में से क्षायिक वर्जित चार सम्यक्त्व अरु मिथ्यात्व, तथा मिश्र, इन में सिद्ध पद नहीं / क्योंके यह सर्व क्षायोपशमिकादि भाववर्ती हैं / और क्षायिक सम्यक्त्व में सिद्ध पद है / क्षायिक सम्यक्त्व भी दो तरें का है / एक शुद्ध, दूसरा अशुद्ध / तहां शुद्ध, अपाय, सत् द्रव्य रहित भवस्थ केवलियों के है / अरु सिद्धों के शुद्ध जीव स्वभावरूप सम्यक् दृष्टि है, सादि अपर्यवसान है / अरु अशुद्ध अपाय सहचारिणी श्रेणिकादिकों की तरें सम्यक् दृष्टि होना, यह क्षायिक सादि सपर्यवसान है / तहां अशुद्ध क्षायिक में सिद्ध पद नहीं। क्योंकि उस के अपाय सहचारी हैं। अरु शुद्ध क्षायिक में तो सिद्ध सत्ता का विरोध नही, क्योंकि सिद्ध अवस्था में भी शुद्ध क्षायिक रहता है। अपाय मतिज्ञानांश का नाम है / अरु सत् द्रव्य शुद्ध सम्यक्त्व के दलियों का नाम है। इन दोनों का अभाव होने से क्षायिक सम्यक्त्व के होता है। [13] संज्ञा यद्यपि तीन प्रकार की है-१. हेतुवादोपदेशिनी, 2. दृष्टिवादोपदेशिनी, 3. दीर्घकालिकी; तो भी दीर्घकालिकी संना करके जो संजी हैं, वे ही व्यवहार में प्रायः
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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