________________ 482 जैनतत्त्वादशं - अब सिद्धों का स्वरूप नव द्वारों से सूत्रकार अरु भाष्य कार के कथनानुसार कहते हैं / 1. सत्पदसिद्धो का स्वरूप प्ररूपणा, 2. द्रव्यप्रमाण, 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शना, 5. काल, 6. अन्तर, 7. भाग, 8. भाव, 6. अल्पबहुत्व, ये नव द्वार हैं / इन नव द्वारों करके सिद्धों का स्वरूप लिखते हैं / प्रथम सत्पद प्ररूपणा द्वार-सतूविद्यमान पद की प्ररूपणा, तिस का द्वार / तात्पर्य कि कोई भी एक पद वाला पदार्थ सत् है या असत्, अर्थात् वह संसार में है अथवा नहीं, इस बात को सिद्ध करने का नाम सत्पदप्ररूपगा है / सो मोक्ष पद गति आदि चौदा पदों में कहना / यथा-[१] पांच प्रकार की गति है। 1. नरकगति, 2. तिर्यग्गति, 3. मनुष्यगति, 4. देवगति, 5. सिद्धगति / तहां सिद्ध गति को वर्ज कर शेष चार गति में सिद्ध नहीं / यद्यपि 1. कर्मसिद्ध, 2. शिल्पसिद्ध, 3. विद्यासिद्ध, 4. मंत्रसिद्ध, 5. योगसिद्ध, 6. भागमसिद्ध, 7. अर्थसिद्ध, 8. यात्रासिद्ध 6. अभिप्राय सिद्ध, 10. तपःसिद्ध, 11. कर्म क्षयसिद्ध, ऐसे अनेक तरे के सिद्ध प्रावश्यकनियुक्तिकार ने कहे हैं, तो भी यहां पर तो जो कर्मक्षय करके सिद्ध हुआ है, तिस का ही अधिकार है / उनहीं को मोक्ष पर्याय है, औरों को नहीं / [2] इन्द्रिय-स्पर्शनादि पांच हैं, एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इंद्रिय, पांच इन्द्रिय,